Lekhika Ranchi

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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद


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ज्ञानशंकर सन्नाटे में आ गये, समझ गये कि मैं इसकी आँखों में उससे कहीं ज्यादा गिर गया हूँ जितना मैं समझता हूँ। बगलें झाँकते हुए बोले– मेरा अनुमान था कि इतनी आत्मिक घनिष्ठता के बाद इस शिष्टाचार की जरूरत नहीं रही। लेकिन आपको नागवार लगता है तो आगे ऐसी भूल न होगी।

गायत्री ने लज्जित होकर कहा– मेरा आशय यह नहीं था। मैं केवल यह चाहती हूँ कि मेरी निज की चिट्ठियाँ न खोली जाया करें।

ज्ञानशंकर– इस धृष्टता का कारण यह था कि मैं अपनी आत्मा को। आपकी आत्मा में संयुक्त समझता था, लेकिन ऐसा जान पड़ता है कि इस घर के द्वेष-पोषक जलवायु ने हमारे बीच में भी अन्तर डाल दिया। भविष्य में ऐसा दुस्साहस न होगा। मालूम होता है कि मेरे कुदिन आए हैं। देखें क्या-क्या झेलना पड़ता है।

गायत्री ने बात का पहलू बदलकर कहा– मुख्तार साहब को लिख दीजिए कि अभी हम लोग न आ सकेंगे, तहसील-वसूल शुरू कर दें।

ज्ञानशंकर– मेरे विचार में हम लोगों का वहाँ रहना जरूरी है।

गायत्री– तो आप चले जाएँ मेरे जाने की क्या जरूरत है? मैं अभी यहाँ कुछ दिन और रहना चाहती हूँ।

ज्ञानशंकर ने हताश होकर कर कहा जैसी आपकी इच्छा। लेकिन आपके बिना वहाँ एक-एक क्षण मुझे एक-एक साल मालूम होगा। कृष्णमन्दिर तैयार ही है। यहाँ भजन-कीर्तन में जो आनन्द आएगा वह यहाँ दुर्लभ है। मेरी इच्छा थी कि अबकी बरसात वृन्दावन में कटती। इस आशा पर पानी फिर गया। आप मेरे जीवन-पथ की दीपक हैं, आप ही मेरे प्रेम और भक्ति की केन्द्रस्थल हैं। आप के बिना मुझे अपने चारों ओर अँधेरा दिखाई देगा। सम्भव है कि पागल हो जाऊँ।

दो महीने पहले ऐसी प्रेमरस पूर्ण बातें सुनकर गायत्री का हदय गद्गद हो जाता, लेकिन इतने दिनों यहाँ रहकर उसे उनके चरित्र का पूरा परिचय मिल चुका था। वह साज जो बेसुर अलाप को भी रसमय बना देता था अब बन्द था। वह मन्त्र का प्रतिहार करना सीख गई थी। बोली– यहाँ मेरी दशा उससे भी दुस्सह होगी, खोई-खोई-सी फिरूँगी, लेकिन करूँ क्या? यहाँ लोगों के हृदय को अपनी ओर से साफ करना आवश्यक है। यह वियोग-दुःख इसलिए उठा रही हूँ, नहीं तो आप जानते हैं यहाँ मन बहलाव को क्या सामग्री है? देह पर अपना वश है, उसे यहाँ रखूँगी। रहा मन, मन एक क्षण के लिए भी अपने कृष्ण का दामन न छोड़ेगा। प्रेम-स्थल में हजारों कोस की दूरी भी कोई चीज नहीं है, वियोग में भी मिलाप का आनन्द मिलता रहता है। हाँ, नित्य प्रति लिखते रहिएगा, नहीं तो मेरी जान पर बन आयेगी।

ज्ञानशंकर ने गायत्री को भेद की दृष्टि से देखा। यह वह भोली-भाली सरला गायत्री न थी। वह अब त्रिया-चरित्र में निपुण हो गई थी, दगा का जवाब दगा से देना सीख गई थी। समझ गये कि अब यहाँ मेरी दाल न गलेगी। इस बाजार में अब खोटे सिक्के न चलेंगे। यह बाजी जीतने के लिए कोई नयी चाल चलनी पड़ेगी, नए किले बाधने पड़ेंगे। गायत्री को यहाँ छोड़कर जाना शिकार को हाथ से खोना था। किसी दूसरे अवसर पर यह जिक्र छेड़ने का निश्चय करके वह उठे। सहसा गायत्री ने पूछा, तो कब तक जाने का विचार है? मेरे विचार से आपका प्रातःकाल की गाड़ी से चला जाना अच्छा होगा।

ज्ञानशंकर ने दीन भाव से भूमि की ओर ताकते हुए कहा– अच्छी बात है।

गायत्री– हाँ, जब जाना ही है तब देर न कीजिए। जब तक इस मायाजाल में फँसे हुए हैं तब तक तो यहाँ के राग अलापने ही पड़ेंगे।

ज्ञानशंकर– जैसी आज्ञा।

यह कहकर वह मर्माहत भाव से उठकर चले गये। उनके जाने के बाद गायत्री को वही खेद हुआ जो किसी मित्र को व्यर्थ कष्ट देने पर हमकों होता है, पर उसने उन्हें रोका नहीं।

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